नज़्म
किन सोचों में डूबे हो
हाँ
मैं उसी पानी की बूँद हूँ
जो तुम्हारे कमरे के कोने में पड़ी
सुराही में रहता था आख़िर-कार
तुम्हारा समुंदर
न जाने कितने दरियाओं का
प्यासा था और
जग जग फिरता था
मैं हर शाम
सुराही की हदें पार करती
तुम्हारे होंट
तरावत के ज़ाइक़े लेते
जग जग फिरने की
थकन मिट जाती
पर हर जग से लाया गया ज्ञान
तुम्हें स्वयम् भगवान बना गया
फिर तुम्हारे
पथरीले हाथ उठे
कोने में पड़ी सुराही
तोड़ बैठे और
चोट
पानी को लगी
बूँद बूँद दर्द से तड़प उठी
सर पटकने लगी
तुम अपनी सूखी आत्मा को ले चलो यहाँ से
किन सोचों में डूबे हो
मैं उसी पानी की बूँद हूँ
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