नज़्म
तुम्हारी रज़ा को लोग
मेरी ख़ता कहते हैं
मेरे हाथों से वो पोशाक
छीन ली गई
जो मैं पहनने वाली थी
और पहनी हुई पोशाक
मैं उतार चुकी थी
मेरे सारे आने वाले मौसम
मंसूख़ कर दिए गए थे
मैं ने कोई एहतिजाज नहीं किया
अपना सर-ए-तस्लीम ख़म कर दिया था
मुझे इतनी ईज़ा दी गई
कि अरमानों का रेशम कातना
अब मेरी बर्दाश्त से बाहर है
और फिर मौसम मंसूख़ न होते
फूल रेशम बटोरते
मेरी उर्यानी ढक जाती
तुम्हारी ताबेदारी में
मैं ने अपनी मुट्ठी कभी खोल कर नहीं देखी
कौन अपने ख़्वाब का
एक टुकड़ा काट कर
मेरी उर्यानी ढाँप देगा
लाओ मैं अपने हाथ की लकीरें मिटा दूँ
(557) Peoples Rate This