नज़्म
मैं
और तन्हाई
सो रहे थे
तुम्हारा ख़त आया
एक भारी पाँव
तन्हाई के सीने पर पड़ा
चीख़ पड़ी
और लिपट गई मुझ से
उस की बाँहों की
क़ैद में
तुम्हारा ख़त पढ़ा
फिर पढ़ा
बार बार पढ़ा
दिल धड़का
वो देखती तो
डर जाती
मन में शोर सा उठा
वो सुनती तो
मर जाती
मैं ने
उस का चेहरा तकिए से छुपा लिया
उस की आँख खुली, ख़फ़ा हुई
और चली गई
सुब्ह हुई
तो
बिस्तर पर मौजूद थी
मेरे बग़ैर
किधर जाएगी
किस के यहाँ जाएगी
तन्हाई
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