नज़्म
अगर तुम्हारे तीन हज़ार पेड़ों में से
एक मैं भी होती तो
एक साल में
छे स्परे एक खाद
और तुम्हारी हज़ारों चाहत भरी नज़रें
मुझे नसीब होती और तब
दिल सोगवार न होता
मेरी हर टहनी
तुम अपने हाथों तराशते
मैं सँवर जाती
हवा मुझ में साँस भरती
धूप और बादल
मेरे दिल की सुर्ख़ सच्चाइयों में झिलमिल करते
और न जाने कितने सुर्ख़ फूलों से
मैं फ़रोज़ाँ रहती
मेरी ज़ात की क्यारी से
तुम्हारी ज़ात के अहाते तक
तमाज़त और ख़ुशबू
शादाब फूल और शादाब ख़ार होते
मगर मैं
तुम्हारे अहाते से बाहर का पेड़ थी
ख़ाना-ब-दोशों की बस्ती का
वो जंगली पेड़ जिस पर
आवारा परिंदे चहचहाते हैं
और जिस की हर टहनी
अपने अंदर
एक ख़ला समेटे
आसमान की वुसअतों में
भटक रही है
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