नज़्म
मेरे दुखों की गूँज
तुम्हारी आवाज़ से सुरीली है
तुम्हारी गोयाई अब लौटी है
जब मन के साज़ सजाए थे मैं ने
कि तुम बोलो तो धुन बन जाए
ज़िंदगी एक गीत बन जाए
तुम तग़ाफ़ुल में पड़े रहे
तुम्हारी आवाज़ की आरज़ू में
मैं ने अभी तक
अपने सफ़र का आग़ाज़ नहीं किया
लेकिन बे-शुमार दुख
मेरी जान से गुज़रते रहे
रक़्स करते रहे
और वो दर्द भी जो मेरी हमशीरा ने
ज़ब्ह होते हुए
मेरी आँखों में रख दिया था
जब से
दुख जी रही हूँ
मैं तुम्हारे मंसूबे क्या
ख़्वाब भी नहीं जी सकती
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