इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हम तुझे बाद में फिर याद न आने लग जाएँ
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है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में
अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
मैं हाथ बाँधे हुए लौट आई हूँ घर में
ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
मेरे आने की ख़बर सुन के वो दौड़ा आता