अगर बिछड़ने का उस से कोई मलाल नहीं
'शबाना' अश्क से फिर आँख क्यूँ भरी हुई है
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मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
ये तो सोचा ही नहीं उस को जुदा करते हुए
इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हिसार-ए-ज़ात में सारा जहान होना था
इक महकते गुलाब जैसा है
अभी से छोटी हुई जा रही हैं दीवारें
ये अपने आप पे ताज़ीर कर रही हूँ मैं
उसी के क़ुर्ब में रह कर हरी भरी हुई है
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
लौट आएगा किसी शाम यही लगता है