जेहल को इल्म का मेआ'र समझ लेते हैं
जेहल को इल्म का मेआ'र समझ लेते हैं
लोग साए को भी दीवार समझ लेते हैं
छेड़ कर जब भी किसी ज़ुल्फ़ को तू आती है
ऐ सबा हम तिरी रफ़्तार समझ लेते हैं
तू फ़क़त जाम का मफ़्हूम समझ ऐ साक़ी
तिश्नगी क्या है ये मय-ख़्वार समझ लेते हैं
हम कि हैं जुम्बिश-ए-अबरू की ज़बाँ से वाक़िफ़
तेरे खिंचने को भी तलवार समझ लेते हैं
अब किसी बरहमी-ए-ज़ुल्फ़ का चर्चा न करो
लोग अपने को गिरफ़्तार समझ लेते हैं
जो भी बाज़ार में दम-भर को ठहर जाता है
सादा-दिल उस को ख़रीदार समझ लेते हैं
दिल के असरार छुपाते हैं वो हम से 'शाइर'
हम कि रंग-ए-लब-ओ-रुख़सार समझ लेते हैं
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