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अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक - शायर लखनवी कविता - Darsaal

अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक

अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक

तिश्ना-लबी का इक दरिया है शीशे से पैमाने तक

हुस्न ओ इश्क़ का सोज़-ए-तअल्लुक़ सम्तों का पाबंद नहीं

अक्सर तो ख़ुद शम्अ' का शो'ला बढ़ के गया परवाने तक

राह-ए-तलब के पेच-ओ-ख़म का अंदाज़ा आसान नहीं

अहल-ए-ख़िरद क्या चीज़ हैं रस्ता भूल गए दीवाने तक

साक़ी को ये ख़ुश-फ़हमी थी हम तक मौज न आएगी

प्यास का जब पैमाना छलका डूब गए मय-ख़ाने तक

मिट्टी से जब फूल खिलाए कार-ए-जुनूँ की मेहनत ने

शहर कुछ इस अंदाज़ से फैले जा पहुँचे वीराने तक

ज़ख़्म-ए-हुनर का रंग सलामत सब को ख़बर हो जाएगी

कितने चेहरे हम ने तराशे हाथ क़लम हो जाने तक

इस ग़ुर्बत की धूप में 'शाइर' अपनों का साया भी न था

जिस ग़ुर्बत की धूप में हम को याद आए बेगाने तक

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In Hindi By Famous Poet Shaayar Lakhnavi. is written by Shaayar Lakhnavi. Complete Poem in Hindi by Shaayar Lakhnavi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.