अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक
अपनी तलब का नाम डुबोने क्यूँ जाएँ मय-ख़ाने तक
तिश्ना-लबी का इक दरिया है शीशे से पैमाने तक
हुस्न ओ इश्क़ का सोज़-ए-तअल्लुक़ सम्तों का पाबंद नहीं
अक्सर तो ख़ुद शम्अ' का शो'ला बढ़ के गया परवाने तक
राह-ए-तलब के पेच-ओ-ख़म का अंदाज़ा आसान नहीं
अहल-ए-ख़िरद क्या चीज़ हैं रस्ता भूल गए दीवाने तक
साक़ी को ये ख़ुश-फ़हमी थी हम तक मौज न आएगी
प्यास का जब पैमाना छलका डूब गए मय-ख़ाने तक
मिट्टी से जब फूल खिलाए कार-ए-जुनूँ की मेहनत ने
शहर कुछ इस अंदाज़ से फैले जा पहुँचे वीराने तक
ज़ख़्म-ए-हुनर का रंग सलामत सब को ख़बर हो जाएगी
कितने चेहरे हम ने तराशे हाथ क़लम हो जाने तक
इस ग़ुर्बत की धूप में 'शाइर' अपनों का साया भी न था
जिस ग़ुर्बत की धूप में हम को याद आए बेगाने तक
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