लोग तुम से भी सितम-पेशा कहाँ होते हैं
जो कहीं का न रखें और फिर अपना न कहें
Gulzar
Anwar Masood
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Wasi Shah
Javed Akhtar
Habib Jalib
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
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इक महक सी दम-ए-तहरीर कहाँ से आई
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
तुम से उल्फ़त के तक़ाज़े न निबाहे जाते
इतना ही नहीं है कि तिरे बिन न रहा जाए
जो हो वरा-ए-ज़ात वो जीना ही और है
उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
जहान-ए-दिल में हुए इंक़लाब और ही कुछ
नग़्मा यूँ साज़ में तड़पा मिरी जाँ हो जैसे
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
ऐ दिल तिरे ख़याल की दुनिया कहाँ से लाएँ
चुप है वो मोहर-ब-लब मैं भी रहूँ अच्छा है
मोहब्बत ख़ार-ए-दामन बन के रुस्वा हो गई आख़िर