वो मज़ा रखते हैं कुछ ताज़ा फ़साने अपने
वो मज़ा रखते हैं कुछ ताज़ा फ़साने अपने
भूलते जाते हैं सब दर्द पुराने अपने
कर के इक बार तिरी चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर के सुपुर्द
फिर न पूछा कभी बंदों को ख़ुदा ने अपने
बज़्म-ए-याराँ में वो अब कैफ़ कहाँ है बाक़ी
रोज़ जाते हैं कहीं जी को जलाने अपने
हाल में अपने कुछ इस तरह मगन हैं गोया
हम ने देखे ही नहीं अगले ज़माने अपने
हम वही हैं कि जहाँ बात किसी ने पूछी
ख़ुश-गुमाँ हो के लगे दाग़ दिखाने अपने
हम-नशीं दोस्त की सूरत तो कहाँ मिलती है
चैन से वो है जो दुश्मन को न जाने अपने
ज़िक्र से उस के सँवारा है सुख़न को 'हक़्क़ी'
ख़ुश-मज़ा लगते हैं कानों को तराने अपने
(526) Peoples Rate This