इधर मौसम की ये ख़ुश-एहतिमामी
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
है अब की फ़स्ल में रंग बहार और ही कुछ
जहान-ए-दिल में हुए इंक़लाब और ही कुछ
वो मज़ा रखते हैं कुछ ताज़ा फ़साने अपने
जो हो वरा-ए-ज़ात वो जीना ही और है
नग़्मा यूँ साज़ में तड़पा मिरी जाँ हो जैसे
तुम से उल्फ़त के तक़ाज़े न निबाहे जाते
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है