ईमा-ए-ग़ज़ल करती हैं मौसम की अदाएँ
ईमा-ए-ग़ज़ल करती हैं मौसम की अदाएँ
इक मौज-ए-तरन्नुम की हवस में हैं फ़ज़ाएँ
नग़्मों की ज़बाँ में कोई समझे तो बताएँ
क्या चीज़ है ये तर्ज़ ये तरहें ये अदाएँ
रोके न गए सीना-ए-ख़ारा से वो तूफ़ाँ
हैं जिन को किनारों में लिए नंग क़बाएँ
आईने से होती हैं सलाहें कि किसी को
जब ख़ूब मिटाना हो तो किस तरह मिटाएँ
ऐसी ही तिरे शहर में होती है मुरव्वत
ऐसी ही मिरे देस में होती हैं वफ़ाएँ
देखे कोई अफ़्लाक का ये जोश-ए-तबाही
तिनके को डरना हो तो तूफ़ान उठाएँ
ठहरा हूँ इसी बात पे मैं लाइक़-ए-ताज़ीर
जिस बात पे बख़्शी गईं औरों की ख़ताएँ
दीवानों को दुनिया से उलझने की कहाँ ताब
फ़ुर्सत हो तो इक और ही दुनिया न बनाएँ
ये कौन से ज़िंदाँ की गिराई गई दीवार
ये कौन सी ता'मीर की उठती हैं बिनाएँ
ऐ मस्कन-ए-ख़ूबान-ए-ज़माँ शहर-ए-अज़ीज़ाँ
हम भी कभी बिकने तिरे बाज़ार में आएँ
(494) Peoples Rate This