चुप है वो मोहर-ब-लब मैं भी रहूँ अच्छा है
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
पाई न कोई मंज़िल पहुँचीं न कहीं राहें
निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
ऐ दिल तिरे ख़याल की दुनिया कहाँ से लाएँ
उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
बड़ी तलाश से मिलती है ज़िंदगी ऐ दोस्त
असर न हो तो उसी नुत्क़-ए-बे-असर से कह
इतना ही नहीं है कि तिरे बिन न रहा जाए
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
नग़्मा यूँ साज़ में तड़पा मिरी जाँ हो जैसे