ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
ईमा-ए-ग़ज़ल करती हैं मौसम की अदाएँ
नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे
वो कहाँ वक़्त कि मोड़ेंगे इनाँ और तरफ़
असर न हो तो उसी नुत्क़-ए-बे-असर से कह
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
इतना ही नहीं है कि तिरे बिन न रहा जाए
जो हो वरा-ए-ज़ात वो जीना ही और है
पाई न कोई मंज़िल पहुँचीं न कहीं राहें
तुम से उल्फ़त के तक़ाज़े न निबाहे जाते
लोग तुम से भी सितम-पेशा कहाँ होते हैं