तुम सलामत रहो क़यामत तक
और क़यामत कभी न आए 'शाद'
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उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
हमारी ग़ज़लों हमारे शेरों से तुम को ये आगही मिलेगी
देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
शॉफ़र
कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी
कौन बुतों से रिश्ता जोड़े