शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
हाथ उठाने की जो ठानी है तो बातिल से उठा
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क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
जब तक हम हैं मुमकिन ही नहीं ना-महरम महरम हो जाएँ
शॉफ़र
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
कहता है बाग़बान लिहाज़ा न चाहिए
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
जब चली अपनों की गर्दन पर चली
अपने जी में जो ठान लेंगे आप
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
हमारी ग़ज़लों हमारे शेरों से तुम को ये आगही मिलेगी