'शाद' ग़ैर-मुमकिन है शिकवा-ए-बुताँ मुझ से
मैं ने जिस से उल्फ़त की उस को बा-वफ़ा पाया
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हमारी ग़ज़लों हमारे शेरों से तुम को ये आगही मिलेगी
'शाद' उफ़्ताद-ए-हर-नफ़स मत पूछ
कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
अपने जी में जो ठान लेंगे आप
जब चली अपनों की गर्दन पर चली
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
क़दम सँभल के बढ़ाओ कि रौशनी कम है