रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
मिस्ल-ए-ग़ालिब 'शाद' गर सब कुछ उधार आता गया
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ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
'शाद' ग़ैर-मुमकिन है शिकवा-ए-बुताँ मुझ से
अपने जी में जो ठान लेंगे आप
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
औरत
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही