रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
मेरी बे-परवाइयों पर उस को प्यार आता गया
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कौन बुतों से रिश्ता जोड़े
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी
जो भी अपनों से उलझता है वो कर क्या लेगा
अपने जी में जो ठान लेंगे आप
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
हमारी ग़ज़लों हमारे शेरों से तुम को ये आगही मिलेगी
जब तक हम हैं मुमकिन ही नहीं ना-महरम महरम हो जाएँ
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
शैख़ पर हाथ उठाने के नहीं हम क़ाएल
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का