नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
वो कह रहे हैं कि जिस से नेकी करोगे उस से बदी मिलेगी
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अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
चाहते हैं घर बुतों के दिल में हम
मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
क़दम सँभल के बढ़ाओ कि रौशनी कम है
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
खरी बातें ब-अंदाज़-ए-सुख़न कह दूँ तो क्या होगा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ