कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
जनाब-ए-शैख़ को मैं बरहमन कह दूँ तो क्या होगा
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इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
अभी तो मौसम-ए-ना-ख़ुश-गवार आएगा
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
शॉफ़र
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा
हमारी ग़ज़लों हमारे शेरों से तुम को ये आगही मिलेगी
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का