जब चली अपनों की गर्दन पर चली
चूम लूँ मुँह आप की तलवार का
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अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
जहान-ए-दर्द में इंसानियत के नाते से
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
सितम-गर को मैं चारा-गर कह रहा हूँ
क़दम सँभल के बढ़ाओ कि रौशनी कम है
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
वक़्त क्या शय है पता आप ही चल जाएगा
कहीं फ़ितरत बदल सकती है नामों के बदलने से
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
जब तक हम हैं मुमकिन ही नहीं ना-महरम महरम हो जाएँ