देख कर शाइ'र ने उस को नुक्ता-ए-हिकमत कहा
और बे-सोचे ज़माने ने उसे ''औरत'' कहा
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क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
मुस्तक़बिल रौशन-तर कहिए
नहीं है इंसानियत के बारे में आज भी ज़ेहन साफ़ जिन का
चमन को आग लगाने की बात करता हूँ
तारे जो आसमाँ से गिरे ख़ाक हो गए
होंटों पर महसूस हुई है आँखों से मादूम रही है
इंतिज़ार था हम को ख़ुशनुमा बहारों का
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
जब चली अपनों की गर्दन पर चली
क़दम सँभल के बढ़ाओ कि रौशनी कम है
उठ गई उस की नज़र मैं जो मुक़ाबिल से उठा