ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
ज़ब्त-ए-नावक-ए-ग़म से बात बन तो सकती है
आदमी की उँगली में फाँस भी खटकती है
क्या किसी नवाज़िश की पोल खोल दी मैं ने
आँख झेंपती क्यूँ है क्यूँ ज़बाँ बहकती है
हम-क़फ़स नसीबों से गुल्सिताँ का क्या रिश्ता
जिस तरह कोई डाली टूट कर लटकती है
साथियो थके-माँदे हारते हो हिम्मत क्यूँ
दूर से कोई मंज़िल दिन में कब चमकती है
काम अज़्म-ओ-हिम्मत से इंसिराम पाते हैं
काहिली की मत सुनिए काहिली तो बिकती है
जिस को निकहत-ओ-गुल से वास्ता नहीं होता
ख़ुश-लिबास फूलों में वो नज़र बहकती है
'शाद' इन अँधेरों में कहकशाँ की मंज़िल से
रात के गुज़रने की सुब्ह राह तकती है
(505) Peoples Rate This