मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
मयस्सर जिन की नज़रों को तिरे गेसू के साए हैं
ग़ज़ल के ख़ुशनुमा उस्लूब उन के हाथ आए हैं
यगाने और बेगाने तअस्सुब ने बनाए हैं
वगर्ना सुम्बुल ओ गुल एक ही गुलशन के जाए हैं
हक़ीक़त नागवार-ए-ख़ातिर-ए-नाज़ुक न बन पाई
कुछ इस तकनीक से हम ने उन्हें क़िस्से सुनाए हैं
तो वो अंदाज़ जैसे मेरा घर पड़ता हो रस्ते में
पए-इज़हार-ए-हमदर्दी वो जब तशरीफ़ लाए हैं
नक़ाब-ए-रुख़ उलट कर उस ने चश्म-ए-शौक़ के पर्दे
समझ में कुछ नहीं आता उठाए हैं गिराए हैं
दमकता है जबीन-ए-नाज़ पर रंग-ए-पशेमानी
अब उन से क्या कहा जाए कि ये सदमे उठाए हैं
लगावट की निगाहों ने चराग़-ए-आरज़ू-ए-मंदी
जलाए हैं बुझाए बुझाए हैं जलाए हैं
जिन्हें मीना-ए-मय हासिल है जिन को दुर्द-ए-पैमाना
वो जैसे आप के अपने हैं ये जैसे पराए हैं
तग़ाफ़ुल की कोई हद भी तो होनी चाहिए आख़िर
बिल-आख़िर बिन बुलाए हम तिरी महफ़िल में आए हैं
नज़र आते हैं तारे इस तरह सावन की रातों में
किसी ने फूल काग़ज़ के समुंदर में बहाए हैं
यक़ीं है 'शाद' मुझ को कुल्लियात-ए-नज़्म-ए-फ़ितरत से
गुलों ने रंग-ओ-निकहत के बहुत मज़मूँ चुराए हैं
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