क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
क्या करें गुलशन पे जोबन ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
क्या तवक़्क़ो' इंक़लाब-ए-नौ निज़ाम आया तो क्या
अब ये तासीर-ए-मोहब्बत पर क़सीदा क्या ज़रूर
जज़्बा-ए-बेताबी-ए-दिल था जो काम आया तो क्या
आँख से दिल की तरफ़ दौड़े वो मय पीते हैं हम
हम वो मय-कश हैं कि साक़ी ले के जाम आया तो क्या
ज़ोफ़ अपना तोड़ने देता है ज़ंजीरें कहीं
हम में दम क्या है जो वक़्त-ए-इंतिक़ाम आया तो क्या
मैं समझता हूँ उसे आग़ाज़-ए-मुस्तक़बिल-फ़ज़ा
आप कहते हैं कोई बाला-ए-बाम आया तो क्या
अब वो इज़हार-ए-हक़ीक़त के लिए डरते नहीं
अब वो कहते हैं ख़त उस का मेरे नाम आया तो क्या
है तो ना-एहसाँ-शनासी 'शाद' लेकिन क्या करूँ
काम बन सकता था यूँ भी कोई काम आया तो क्या
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