वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
मैं वो मरीज़ हूँ जिसे ईसा भी छोड़ दे
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एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
मेरी क़िस्मत से क़फ़स का या तो दर खुलता नहीं
आह करता हूँ तो आती है पलट कर ये सदा
हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का
हुस्न का हर ख़याल रौशन है
रंग उड़ कर रौनक़-ए-तस्वीर आधी रह गई
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक़
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना