हुस्न का हर ख़याल रौशन है
इश्क़ का मुद्दआ किसे मालूम
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मेरी क़िस्मत से क़फ़स का या तो दर खुलता नहीं
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना
एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कटी
हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में
जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक़
तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
हसीनों के तबस्सुम का तक़ाज़ा और ही कुछ है
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का