मुंतशिर जब ज़ेहन में लफ़्ज़ों का शीराज़ा हुआ
मुंतशिर जब ज़ेहन में लफ़्ज़ों का शीराज़ा हुआ
मुझ को इक सादा वरक़ के दुख का अंदाज़ा हुआ
यूँ तो इक चुभता हुआ एहसास थी उस की नज़र
चोट ही उभरी न कोई ज़ख़्म ही ताज़ा हुआ
मोड़ना चाहा था मैं ने सर-फिरे लम्हों का रुख़
देर में उजड़ी हुई शाख़ों को अंदाज़ा हुआ
अपनी पलकों पर लिए फिरता रहा नींदों का बोझ
चंद ख़्वाबों का अदा मुझ से न ख़म्याज़ा हुआ
नीची दीवारों के साए भी बड़े होते नहीं
आज अपने दोस्तों से मिल के अंदाज़ा हुआ
ख़ुद से शर्मिंदा नज़र आएँगे सारे आइने
फिर कभी यकजा अगर चेहरों का शीराज़ा हुआ
जब हवाएँ दी गई 'आलम' मिरे इख़्लास को
एक चेहरा था जो अपने आप बे-ग़ाज़ा हुआ
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