मिरे हक़ में कोई ऐसी दुआ कर
मिरे हक़ में कोई ऐसी दुआ कर
मैं ज़िंदा रह सकूँ तुझ को भुला कर
फ़सुर्दा हूँ तुझे खो कर कि जैसे
कोई बच्चा क़लम तख़्ती गँवा कर
यहाँ सूरज से ख़ाली दिन हैं सारे
कहा तो था तुझे रौशन दिया कर
भुलाने की मैं कोशिश कर रहा हूँ
तिरी तस्वीर कमरे में सजा कर
हुआ महरूम मैं शम्स ओ क़मर से
घना इक पेड़ आँगन में लगा कर
मुझे मेरे मुक़ाबिल कर दिया है
किसी ने आईना मुझ को दिखा कर
ख़ुद अपना रास्ता ही खो दिया है
सफ़र में गर्द पाँव से उड़ा कर
मैं कैसे शौक़ की तस्कीन करता
किसी ज़ख़्मी परिंदे को उड़ा कर
मैं चुनता फिरता हूँ काग़ज़ के टुकड़े
किताबों को समुंदर में बहा कर
घुटन को कर लिया अपना मुक़द्दर
मकाँ को शहर से ऊँचा उठा कर
मैं उस को जानता हूँ बात मेरी
वो अब भी टाल देगा मुस्कुरा कर
'नवेद'-ए-सुब्ह का हासिल है सूरज
उजाला होगा तारों को मिटा कर
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