सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
बहुत मुश्किल पहेली 'अर्शिया-हक़'
ख़ुशी क्या शय नहीं मा'लूम उस को
ग़मों के संग खेली 'अर्शिया-हक़'
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तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो