यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
ख़ुदा जो होता अगर क्या ख़ुदा नहीं सुनता
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औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी