तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
तुम्हें गुमान न हो तुम मिरी मोहब्बत हो
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इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'