तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
एक औरत का दर्द क्या जानो
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तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ
मस्जिद को मत जाया कर
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम