सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
'हक़' कहो कौन तुम को चाहेगा
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यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो
मस्जिद को मत जाया कर
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे