चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
यही बाग़बान-ए-चमन चाहता है
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इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
मस्जिद को मत जाया कर
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की