बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
हसद रखती हैं सब जन्नत की हूरें
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चमन में न बुलबुल का गूँजे तराना
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता