'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो
तुम भी काफ़िर हो गुनहगारों में हो
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Gulzar
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Wasi Shah
Rahat Indori
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Habib Jalib
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तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं
तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ
दिल से हो कर दिल तलक जाया करो
तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'