अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ
सब से अपना दर्द छुपाती फिरती हूँ
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तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी
मस्जिद को मत जाया कर
बताओ तो तुम्हें कैसी लगी है
मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ
सहेली की सहेली 'अर्शिया-हक़'
सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं
इस धरती से उस अम्बर को लौट गया
तुम ये कहते हो इक सवाल हो तुम
तेरे लिए मैं बाज़ी लगाऊंगी जान की
हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं
यूँ बातें तो बहुत सारी करोगे
तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ