अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
आब-ओ-गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं
जिस दिल-ए-ना-आक़ेबत-अंदेश ने छोड़ा था साथ
ऐसे दीवाने को मीर-ए-कारवाँ समझा था मैं
आँख बंद होते ही मुझ पर खुल गया राज़-ए-हयात
ज़ीस्त को दुनिया में उम्र-ए-जावेदाँ समझा था मैं
उन के क़ब्ज़े में है जन्नत उन के क़ब्ज़े में है नार
इस तअ'ल्ली को हदीस-ए-दीगराँ समझा था मैं
मुस्तक़िल है वो तो बर्क़-ओ-बाद का मस्कन 'ज़हीर'
ये ग़लत-फ़हमी थी जिस को आशियाँ समझा था मैं
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