रोज़ इक बात मिरे दिल को सताती है 'ज़िया'
इस क़दर टूट के तुम ने उसे चाहा क्यूँ है
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किसी को कुछ नहीं मिलता है आरज़ू के बग़ैर
दिल का दिलबर जब से दिल की धड़कन होने वाला है
दिल-ए-बर्बाद में फिर उस की तमन्ना क्यूँ है
अश्क पीते रहे हर जाम पे हँसते हँसते
तेरे तसव्वुरात से बचना है अब मुहाल भी
बिस्तर-ए-हिज्र की शिकनों पे कहानी लिख दे
क़तरे को तुम दरिया कर दो
उस को देखा तो दिखा कुछ भी नहीं
आँख के साहिल पर आते ही अश्क हमारे डूब गए