सरों पे धूप तो आँखों में ख़्वाब पत्थर के
सरों पे धूप तो आँखों में ख़्वाब पत्थर के
वो संग-दिल थे सो उतरे अज़ाब पत्थर के
हवा-ए-कूचा-ए-जानाँ से हाल पूछा था
इसी ख़ता पे मिले हैं जवाब पत्थर के
ये कौन संग-ए-सिफ़त पानियों में उतरा है
उठे हैं आब-ए-रवाँ से हबाब पत्थर के
हवाएँ बाँझ ज़मीं बे-समर नज़र वीराँ
कि अब के बरसे हों जैसे सहाब पत्थर के
तलाश-ए-मंज़िल-ए-जानाँ में रहने वालों को
ख़ुदा मिले भी तो ख़ाना-ख़राब पत्थर के
ये कैसा मौसम-ए-गुल है ये कैसा गुलशन है
रविश रविश में खिले हैं गुलाब पत्थर के
कोई वहाँ ग़म-ए-इंसाँ की बात क्या जाने
'सफ़ी' जहाँ पे हों इज़्ज़त-मआब पत्थर के
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