दुनिया ने सच को झूट कहा कुछ नहीं हुआ
दुनिया ने सच को झूट कहा कुछ नहीं हुआ
इतना लहू ज़मीं पे बहा कुछ नहीं हुआ
पहले भी कर्बला में मशिय्यत ख़मोश थी
अब इक चराग़ और बुझा कुछ नहीं हुआ
फ़िरऔन-ए-मस्लहत सर-ए-तूर-ए-नज़र रहे
मूसा भी ले के आए असा कुछ नहीं हुआ
मेरे लहू को चेहरे पे मल कर मिरी ज़मीं
देती रही फ़लक को सदा कुछ नहीं हुआ
तस्लीस-ए-बे-हिसी ने हरम को ज़ुबूँ किया
क़ुरआँ भी रेहल-ए-जाँ से गिरा कुछ नहीं हुआ
शल हो गए हैं हाथ दुआ माँगते हुए
अब क्या कहूँ कि मेरे ख़ुदा कुछ नहीं हुआ
देखें वो सुब्ह-ए-अम्न कब आए 'सफ़ी'-हसन
अब तक सिवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा कुछ नहीं हुआ
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