मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
हर तरह करो दौलत-ए-दुनिया की तलाश
हैं क़ौम में मुद्दई विलायत के बहुत
अफ़्सोस नहीं विलायती अक़्ल-ए-मआश
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पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
न अपना बाक़ी ये तन रहेगा न तन में ताब ओ तवाँ रहेगी
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
है इश्क़ तो फिर असर भी होगा
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
ये बात अजीब निगाह में आई है
मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो