लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
कर शुक्र जो हासिल है तिरे दिल को फ़राग़
मत तेग़-ए-ज़बाँ से कर दिलों को घाएल
भर जाने पे ज़ख़्म के भी रह जाता है दाग़
Parveen Shakir
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तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
ये बात अजीब निगाह में आई है
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज