जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
हो इस से रज़ीलों की बुराई ज़ाहिर
है दख़्ल-ए-अज़ीम इल्म में तीनत को
मेवों में है तासीर ज़मीं की ज़ाहिर
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कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज