इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
या इस से कि कज-कुलाह हो सकते हम
बेहतर था कि ख़ल्क़ की हिदायत के लिए
हर राह में शाहराह हो सकते हम
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लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
ये बात अजीब निगाह में आई है
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज