है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
ले जाए बहा के गरचे तालीम का सैल
और खाए पड़ा गरचे बरसों ग़ोते
निकलेगा तो होगा फिर वही बैल का बैल
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तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
ग़ैरत में सियासत में शुजाअ'त में हो मर्द
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं