दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
मेहराब-ए-दुआ में सर-निगूँ रहते हैं
आ जाती है जिस वक़्त घर उन के दौलत
फिर क्या है ये सरगर्म-ए-जुनूँ रहते हैं
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हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज
इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
ग़ैरत में सियासत में शुजाअ'त में हो मर्द
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो